सभी धार्मिक
किताबों में यह जरूर लिखा रहता है कि इसे खुद ईश्वर ने रचा है। ईश्वर के नाम से हमेशा डरने वाले लोग इसे सच मान लेते हैं। ईश्वर यदि खुद इसे रचते तो इस संसार की सभी भाषाओं में एक साथ रच देते,
कौन उनको रचने से रोका था। सभी को एक ही झटके में ज्ञान का खजाना
मिल जाता। लेकिन इन किताबों में कितने आधारहीन बातें हैं इसको जानने के लिए बस
उनकी कुछ बातों को पढ़ना ही काफी रहता है। इन किताबों में मानवीय कौतूहल पर जरूर
कुछ न कुछ लिखी जाती है। मतलब मानव मन में उठने वाली सबसे उत्सुकता और कौतूहल वाली
बातें जरूर लिखी रहती है। जैसे जन्म मृत्यु, चाँद तारे
ईत्यादि। मृत्यु के बाद आदमी का क्या होता है? क्या वह हमेशा के लिए खत्म हो जाता
है?
हर संवेदनशील
और चिंतनशील व्यक्ति इस पृथ्वी और सृष्टि को जानने के लिए हमेशा उत्सुक रहता है।
इसीलिए इन किताबों में सृष्टि की बातें जरूर लिखी रहती है,
ताकि लोग सच्चाई की खोज में इसे पढ़ते रहें। लोगों के कौतूहल को
पूरा करने के लिए कहीं सृष्टि को 7 दिनों में बनाया गया- कहा
गया है, तो किसी में पृथ्वी को ब्रह्मांड का केंद्र बिंदु बताया गया है। कहीं आदमी
को मुख से जन्मा हुआ कहा गया है तो कहीं पैर के द्वारा।
बारिश कैसे
होती है? आकाश में बादल कैसे आते हैं? आकाश में ओले कैसे
बनते हैं? भूकंप होने के क्या कारण है? आकाश से बिजली कैसे गिरती है? बिजली से बचाव के लिए
क्या किया जा सकता है? खून क्यों लाल होता है? खून में कितने तरह के तत्व होते हैं? कौन सी विटामिन
की कमी के कारण कौन सी बीमारी होती है? ऐसी करोड़ों बातें
हैं, जिसके बारे में इन किताबों में कुछ भी लिखा नहीं गया
है। क्योंकि अनुमान लगाने के समय में इन बातों पर अनुमान ही नहीं लगाया जा सकता
था। इन किताबों के लेखन काल में जो-जो बातें दृष्टिगोचर होती थीं सिर्फ उन्हीं बातों
पर अनुमान की झड़ी लगायी गयी है।
आज वैज्ञानिक
युग है और इन अनुमान की किताबों की अधिकतम रहस्य आदमी ने सुलझा लिया है। लेकिन
बचपन से थोपे गये थोपन-ज्ञान (?) के कारण ‘धर्म’
दिमाग में एक आदत के रूप में बैठ गया है । कुछ आदतें बहुत मुश्किल से ही दिमाग से
निकलती है। जात-पात, धर्म-संप्रदाय आदि बातें दिमाग के सबसे अंदरूनी हिस्से में
काई की तरह जमी रहती है। इसलिए सच्चाई जानने के बाद भी आदमी जाति-धर्म के पीछे
पूंछ बांधकर पड़ा हुआ रहता है।
– नेह इन्दवर