दुनिया के तमाम
प्रचलित धर्म विज्ञान की कसौटी पर खरे नहीं उतर पाते हैं। धार्मिक ग्रंथ अविकसित
समाजों ने तब लिखा था़, जब आधुनिक विज्ञान का जन्म नहीं हुआ था। पूरी
दुनिया तब धरती को सृष्टि का केन्द्र बिन्दु मानती थी, और
समझती थी कि चांद तारे, सूरज धरती की परिक्रमा करते हैं।
गोलकार पृथ्वी की परिकल्पना कहीं नहीं थी, तब के सबसे
बुद्धिमान लोग इसे चपटी ही समझते रहे।
विशेष ज्ञान की कमी
के कारण आम जनता को जो बोल दी जाती थी, उसे
वे पत्थर की लकीर मान लेते थे। इसी कारण दुनिया के धार्मिक किताबों को अलौकिक अर्थात् उपर वाले का लिखा
माना गया, क्योंकि अनपढों को ऐसा ही बताया गया था।
बिना सोचे समझे
धार्मिक बातों को सच्चा मान लेने की आदत चालाक लोगों को बहुत भाया और वे लोगों के
भोलेपन का लाभ उठाते हुए उनके मालिक बन बैठे। ऐसे लोगों ने अपने तमाम प्रकार के
वर्चस्व को सर्वोच्च स्तर पर स्थापित करने के लिए क्या क्या न चालाकी दिखाए और
वैचारिक षडयंत्र किए और वर्चस्वादी नियम कानून बनाए।
आर्थिक,
सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, दैहिक
शोषण पर फलने फूलने वालों ने धर्म को दैनिक और मानसिक आदत में बदलने के हर उपाय
किए और उसमें वे अत्यंत सफल भी रहे। धर्म की मानसिक गुलामी को थोपने के लिए लोगों
को बचपन से ही पकडा जाता है। व्यक्ति और समाज पकड से बाहर न जाए, इसके लिए धार्मिक शोषकों ने ऐसे ऐसे नियम बनाए जो उन्हें चंगुल से बाहर न
जाने दें।
जन्म,
विवाह, मृत्यु, खुशी और
गमों को इन नियमों से जोडा गया। वर्तमान वैज्ञानिक समय में भी जबकि समस्त ज्ञान
किताबों में उपलब्ध है, धार्मिक विचारों का प्रचार या फैलाव
करना, वर्चस्वाद का फैलाव ही है। इन वर्चस्वादी सामंतवाद का
अत्यधिक असर आज भी अनपढों या मजबूर या मानसिक रूप से कमजोर लोगों में ही होता है।
सबसे बडी बात है इसके
लिए पानी की तरह पैसा बहाया जाता है। क्योंकि इसका लाभ अंतहीन और कल्पनातीत होता
है। यह वर्चस्वादी सामंतवाद का फैलाव दुनिया के हर धर्म वाले कर रहे हैं। और यह
सर्वत्र दृष्टिगोचर है।
– नेह इन्दवर